- प्रदीप सरदाना
- वरिष्ठ पत्रकार एवं फ़िल्म समीक्षक
आशा पारेख को उनके 80 वें जन्म दिन से ठीक पहले दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलना उनके लिए एक खूबसूरत सौगात है. उनका 2 अक्टूबर को 80वां जन्म दिन है. जबकि इस बार का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह 30 सितंबर को होना निश्चित हुआ है.
हिन्दी सिनेमा की दिलकश और बेहद सफल अभिनेत्री आशा पारेख ने अपने फ़िल्म करियर में एक से एक यादगार फ़िल्म की है. जब प्यार किसी से होता है, तीसरी मंज़िल, लव इन टोक्यो, दो बदन, उपकार, कन्यादान, आन मिलो सजना, कटी पतंग, समाधि और मैं तुलसी तेरे आँगन की.
इधर आशा पारेख को सन 2020 के लिए भारतीय सिनेमा का यह शिखर पुरस्कार मिलना और भी बड़ी बात है, क्योंकि भारत सरकार ने 37 साल बाद किसी फ़िल्म अभिनेत्री को फाल्के सम्मान दिया है. पिछली बार वर्ष 1983 के लिए अभिनेत्री दुर्गा खोटे को यह सम्मान मिला था, अन्यथा फाल्के पुरस्कार पर अधिकतर पुरुषों का वर्चस्व रहा है.
जबकि फाल्के पुरस्कार की शुरुआत सन 1969 में अभिनेत्री देविका रानी के साथ हुई थी, जब 1970 में 17 वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में देविका को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन बाद में पुरुष ही इस पुरस्कार को ज्यादा पाते रहे.
आशा के बाद अब फिर आशा
जहां तक किसी महिला को फाल्के सम्मान मिलने की बात है तो कोई महिला फिर 22 साल बाद फाल्के सम्मान से पुरस्कृत होगी. दिलचस्प यह है कि 2000 में भी फाल्के सम्मान आशा को मिला था, गायिका आशा भोसले को, और अब भी आशा, आशा पारेख को.
आशा पारेख से मेरी अक्सर फोन पर बात होती रहती है. मैं उन्हें जब भी यह कहता था कि उन्हें फाल्के पुरस्कार मिलना चाहिए तो वह मुस्कुराकर बस यही कहतीं, "क्या कह सकते हैं."
अभी जब उन्हें यह पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई तो वह अमेरिका में हैं, लेकिन उनकी कज़िन अमीना ने बताया कि वह 29 सितंबर को मुंबई पहुँच जाएंगी और फिर दिल्ली में यह पुरस्कार लेने के लिए उपस्थित रहेंगी.
दादा साहब फाल्के से पहले आशा पारेख 1992 में पद्मश्री से सम्मानित हो चुकी हैं.
बाल कलाकार के रूप में की थी शुरुआत
गुजरात में 2 अक्तूबर 1942 को जन्मी आशा पारेख के पिता बच्चूभाई पारेख एक हिन्दू गुजराती परिवार से थे, जबकि उनकी माँ सुधा उर्फ़ सलमा एक मुसलमान परिवार से थीं. बचपन में ही आशा पारेख ने क्लासिकल डांस सीखना शुरू कर दिया था. साल 1952 में 10 साल की उम्र में ही उन्हें बाल कलाकार के रूप में एक फ़िल्म मिल गई थी, जिसका नाम था 'माँ'.
असल में फ़िल्मों में जब उस दौर के मशहूर फ़िल्मकार बिमल रॉय ने बेबी आशा के एक डांस को देखा तो उन्हें अपनी फ़िल्म 'माँ' में एक भूमिका दे दी. इस फ़िल्म में भारत भूषण, लीला चिटनिस और श्यामा मुख्य भूमिकाओं में थे.
यहीं से आशा का फ़िल्मों में शौक़ जागा. इसके बाद बाल कलाकार के रूप में आशा ने आसमान, धोबी डॉक्टर, बाप बेटी, चैतन्य महाप्रभु, अयोध्यापति और उस्ताद जैसी कुछ और फ़िल्में भी कीं.
सुबोध मुखर्जी ने दिया पहला ब्रेक
बतौर नायिका आशा को पहला ब्रेक निर्माता सुबोध मुखर्जी ने दिया फ़िल्म 'दिल देके देखो' से. जब आशा ने इस फ़िल्म की शूटिंग शुरू की तब वह 16 बरस की थीं. इस फ़िल्म के नायक थे शम्मी कपूर और निर्देशक नासिर हुसैन.
यह फ़िल्म जब 1959 में प्रदर्शित हुई तो हिट हो गई. इसी के साथ फ़िल्म क्षितिज पर एक नई तारिका आशा चमक उठी. शम्मी कपूर के साथ भी आशा पारेख की जोड़ी काफ़ी पसंद की गई.
आशा पारेख ने शम्मी कपूर के साथ मैंने 'पगला कहीं का', 'जवां मोहब्बत' और 'तीसरी मंज़िल' जैसी फिल्में कीं, बाद में कुछ और भी.
उधर 'दिल देके देखो' से आशा इसके निर्देशक नासिर हुसैन को अपना दिल दे बैठीं. दोनों का नाता ऐसा जुड़ा जो सदा के लिए बना रहा. दोनों का प्रेम किसी से छिपा नहीं था, लेकिन नासिर हुसैन पहले से ही शादीशुदा थे. इसलिए सम्मान और मर्यादाओं के चलते दोनों ने शादी नहीं की.
हालांकि नासिर हुसैन के साथ आशा पारेख ने सात फ़िल्में कीं जिनमें जब प्यार किसी से होता है, फिर वही दिल लाया हूँ, तीसरी मंज़िल, बहारों के सपने, प्यार का मौसम, कारवां में आशा नायिका थीं. जबकि 1984 में नासिर की एक और फिल्म 'मंज़िल मंज़िल' में भी आशा थीं.
यहाँ तक आशा पारेख ने फिर किसी से शादी की ही नहीं, जबकि सन 1960 से 1970 के दौर में उनकी दीवानगी देखते ही बनती थी. कितने ही लोग आशा के साथ शादी के लिए मचलते थे.
माँ चिंतित थीं आशा अकेली कैसे रहेगी
हालांकि आशा पारेख ने अपनी अविवाहित ज़िंदगी को ख़ूब मजे़ से जिया. उन्हें यात्राओं का भी अच्छा शौक रहा है. फ़िल्मों में अभिनय से दूर होने पर वह सीरियल आदि के निर्माण में व्यस्त रहीं तो समाज सेवा के लिए भी वह काफ़ी कुछ करती रहती हैं.
जब तक उनकी माँ सुधा जीवित थीं, तब तक वह उनके साथ रहती थीं, लेकिन जब सुधा पारेख बीमार रहने लगीं तो उन्हें बेटी की चिंता होने लगी कि बाद में वह अकेली कैसे रहेगी, लेकिन उनकी माँ की यह चिंता दूर कि सुधा की दोस्त शम्मी आंटी ने.
शम्मी आंटी फ़िल्मों की पुरानी अभिनेत्री थीं, बाद में वह सीरियल निर्माता के रूप में भी काफ़ी मशहूर रहीं.
शम्मी आंटी ने एक बार मुझे बताया था- सुधा पारेख ने अपनी बीमारी के दिनों में मुझसे कहा- "आशा ने शादी नहीं की, मेरे बाद उसका ध्यान कौन रखेगा. यह चिंता मुझे बहुत सताती है. तब मैंने उनसे कहा-जब तक मैं ज़िंदा हूँ मैं उसकी देखभाल करूंगी."
शम्मी आंटी ने अपना यह वचन मरते दम तक यानी 6 मार्च 2018 तक निभाया, जबकि शम्मी, आशा से 16 बरस छोटी थीं, लेकिन दोनों में दोस्ती का रिश्ता रहा. बाद में दोनों ने मिलकर कुछ सीरियल भी बनाए.
वहीदा रहमान और हेलन हैं ख़ास दोस्त
आशा पारेख की फ़िल्मी दुनिया में यूं बहुत से दोस्त रहे, लेकिन उनकी सबसे ज़्यादा दोस्ती वहीदा रहमान और हेलन के साथ है. ये तीनों अक्सर साथ घूमती-फिरती भी हैं, तो आए दिन कभी किसी के घर तो कभी किसी के घर मिलती भी रहती हैं.
आशा पारेख बताती हैं, "हम तीनों में बहुत अच्छी दोस्ती है. हम कभी भी रविवार को किसी के भी घर लांच पर मिलते हैं. मज़े से साथ खाते हैं, ख़ूब गप्पें मारते हैं, मस्ती करते हैं."
हालांकि इससे पहले आशा पारेख कि इस दोस्त मंडली में शम्मी आंटी, साधना और शशि कला भी थीं, लेकिन उनके निधन के बाद इनकी यह टोली छोटी हो गई.
यहाँ यह भी दिलचस्स्प है कि पिछले कुछ बरसों से फाल्के सम्मान की मीटिंग में जिन अभिनेत्रियों के नाम की चर्चा होती है, उनमें वहीदा रहमान और हेलन का नाम भी शामिल है, लेकिन यह बाज़ी आशा पारेख ने जीत ली है.
राजेश, धर्मेन्द्र, शशि और जीतेंद्र के साथ जमी जोड़ी
आशा पारेख की जोड़ी शम्मी कपूर के साथ तो जमी ही, लेकिन मनोज कुमार, राजेश खन्ना, शशि कपूर, धर्मेन्द्र और जीतेंद्र जैसे हीरो के साथ भी इनकी जोड़ी ख़ूब जमी.
धर्मेन्द्र के साथ आशा पारेख ने 'मेरा गाँव मेरा देश','आया सावन झूम के','शिकार', 'आए दिन बहार के' और 'समाधि' जैसी फ़िल्में करके बॉक्स ऑफ़िस पर भी धूम मचा दी थी.
फिर मनोज कुमार के साथ भी आशा ने 'अपना बनाके देखो' और 'साजन' जैसी फ़िल्में कीं, लेकिन 'दो बदन' और 'उपकार' इनकी सुपर हिट फ़िल्म थी.
उधर शशि कपूर के साथ भी आशा की 'कन्या दान', 'प्यार का मौसम' जैसी दो फ़िल्में तो बहुत पसंद की गईं. यूं 'पाखंडी', 'रायजादे' और 'हम तो चले परदेस' में भी ये दोनों थे.
आशा की जोड़ी जॉय मुखर्जी के साथ भी तब सुपर हिट रही, जब ये दोनों फ़िल्म 'लव एंड टोक्यो' और 'फिर वही दिल लाया हूँ' में आए. वैसे एक और फिल्म 'जिद्दी' में भी इन्हें पसंद किया गया.
जीतेंद्र के साथ आशा पारेख की जोड़ी की बात करें तो इनकी 'कारवां' फिल्म सबसे ऊपर आएगी जिसने लोकप्रियता का नया इतिहास लिख दिया था. साथ ही 'नया रास्ता' और 'उधार का सिंदूर' भी इनकी सफल और अच्छी फिल्मों में आती है.
वहीं राजेश खन्ना के साथ तो आशा पारेख की अपने करियर की तीन बेहद लोकप्रिय फिल्में हैं. 'बहारों के सपने', 'आन मिलो सजना' और 'कटी पतंग'. ये तीनों फिल्में अपने गीत संगीत के लिए भी बहुत लोकप्रिय रहीं.
आशा पारेख ने यूं अपनी फिल्मों में चुलबुली, चंचल और शोख भूमिकाओं को एक नया आयाम दिया है. वहाँ शक्ति सामंत ने 'कटी पतंग' में उन्हें संजीदा भूमिका देकर उनके करियर को एक नई मंज़िल दे दी थी.
'कटी पतंग' के लिए आशा पारेख को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का फिल्मफेयर अवॉर्ड भी मिला, जबकि 'कटी पतंग' की रिलीज़ से पहले कुछ लोगों का मत था कि आशा पारेख ने एक विधवा के रूप वाली भूमिका करके अपने करियर का अंत कर दिया है, लेकिन गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी इस फिल्म के बाद आशा पारेख के करियर और अभिनय में और भी चमक आ गई.
हालांकि इससे पहले राज खोसला अपनी 'दो बदन' और 'चिराग' जैसी दो फिल्मों में गंभीर और त्रासदी भूमिकाएं देकर उनके अभिनय कौशल को दिखा चुके थे जिसे खोसला ने 1978 में 'मैं तुलसी तेरे आँगन की' फिल्म में फिर दोहराया. यह फिल्म आशा पारेख की ज़िंदगी में मील का नया पत्थर साबित हुई.
और भी हैं कई यादगार फिल्में
आशा पारेख ने जहां 1952 में बाल कलाकार के रूप में शुरुआत की, वहाँ उनकी अंतिम फिल्म 1999 में आई 'सर आँखों पर'. इससे उनका कुल सक्रिय फिल्म करियर 47 साल का रहा, लेकिन बतौर नायिका वह 1959 में आईं और 1995 में उन्होंने 'आंदोलन' फिल्म के बाद फिल्मों में काम करना बंद कर दिया था. इस हिसाब से उनका करियर 36 साल का रहा. उनके करियर को ध्यान से देखें तो उसमें लगभग 75 फिल्में हैं, लेकिन उनमें हिट फिल्में काफी हैं.
आशा पारेख की अन्य प्रमुख फिल्मों में घराना, मेरी सूरत तेरी आँखें, भरोसा, मेरे सनम, ज्वाला, राखी और हथकड़ी, हीरा, रानी और लाल पारी, ज़ख्मी, बिन फेरे हम तेरे, सौ दिन सास के, कालिया, हमारा खानदान, लावा, बंटवारा और प्रोफेसर की पड़ोसन जैसी फिल्में भी हैं.
उन्होंने गुजराती, पंजाबी और कन्नड की तीन भाषाओं की कुछेक फिल्मों में भी काम किया है.
सीरियल निर्माण के साथ समाज सेवा
आशा पारेख ने 1990 के दशक में गुजराती सीरियल 'ज्योति' बनाकर सीरियल निर्माण की दुनिया में भी क़दम रखा. बाद में उन्होंने हिन्दी में भी बाजे पायल, दाल में काला, कोरा कागज और कंगन जैसे सफल सीरियल भी बनाए.
आशा पारेख ने एक बार बताया था कि नृत्य उनका पहला प्यार है. फिल्मों में तो वह डांसिंग स्टार के रूप में मशहूर रही हीं. मंच पर भी वह अक्सर डांस शो करती रहीं, लेकिन कुछ बरस पहले अपने कमर दर्द के चलते उन्होंने डांस करना बंद कर दिया था.
लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि नृत्य कला को बढ़ावा देने के लिए आशा पारेख ने मालाबार हिल, मुंबई में 'गुरुकुल' के नाम से अपना एक डांस स्कूल भी खोला था.
उधर वह समाज सेवा में भी हमेशा आगे रही हैं. सांताक्रुज मुंबई में उनके सहयोग से 'आशा पारेख हॉस्पिटल एंड रिसर्च सेंटर' का संचालन भी लंबे समय तक होता रहा, लेकिन कुछ समय पहले आशा पारेख ने दुख के साथ बताया था कि अनुदान आदि ना मिलने के कारण अब वह अस्पताल चल नहीं पा रहा है.
उधर फिल्म कलाकारों के कल्याण के लिए मुंबई फिल्म उद्योग की संस्था 'सिंटा' के साथ जुड़कर कभी पदाधिकारी के रूप में तो कभी बाहर से वह कई तरह की मदद करती रही हैं.
सेंसर बोर्ड की भी रहीं अध्यक्ष
आशा पारेख सेंसर बोर्ड की भी 1998 से 2001 तक अध्यक्ष रहीं, हालांकि फिल्मों को पास करने के मामले में उनका सख्त व्यवहार शेखर कपूर, देव आनंद, सावन कुमार और फिरोज खान जैसे कई फ़िल्मकारों को पसंद नहीं आया.
इस पर आशा पारेख ने कहा था, "मुझे सरकार ने जो ज़िम्मेदारी सौंपी है मैं उसका पालन नियमानुसार करूंगी. फिल्मों में मेरे बहुत दोस्त हैं, लेकिन दोस्ती निभाने के लिए मैं आँख बंद करके फिल्में पास नहीं कर सकती."
बहरहाल अब आशा पारेख को दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिलने से उनके अभिनय कौशल और उनके फिल्मों में किए गए योगदान को भी एक बड़ा प्रमाण मिल गया है. एक ऐसा पुरस्कार जिसे पाने का सपना फिल्मों से जुड़ा बड़े से बड़ा इंसान भी देखता है.
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