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Friday, February 25, 2022

Love Hostel Review: 'मुद्दे' से ज्यादा गालियां और गोलियों पर फोकस, बॉबी की एक्टिंग पर मेकअप हावी - Aaj Tak

दूसदे धर्म वाले से शादी.....परिवार का रिश्ता तोड़ना.....जोड़े के बीच दुश्मनों का पड़ना और फिर ऑनर किलिंग...फिल्म के टाइटल बदल सकते हैं...लेकिन ऑनर किलिंग वाले मुद्दे पर मोटी-मोटी कहानी ऐसी ही रहती है. अब इन सभी फ्लेवर के साथ मार्केट में एक और फिल्म Zee5 पर आई है. नाम है लव हॉस्टल और डायरेक्टर हैं शंकर रमन....कुछ साल पहले गुड़गांव बनाई, ऐसे ही एक तगड़े मुद्दे पर थी फिल्म और खूब पसंद भी की गई. अब उनकी फौज में बॉबी देओल हैं,  विक्रांत मेसी हैं और सान्या मल्होत्रा को भी ले लिया गया है. कितना कमाल कर पाए हैं, जानते हैं

इंटरकास्ट मैरेज और ऑनर किलिंग की कहानी

कहानी हरियाणा की है....ज्योति (सान्या मल्होत्रा) और आशू ( विक्रांत मेसी) एक दूसरे से प्यार करते हैं. हिंदू-मुस्लिम वाला चक्कर है, ऐसे में परिवार शादी के लिए राजी नहीं है. लड़की की दादी तो बड़ी नेता हैं, समाज में अलग ही रुतबा रखती हैं, ऐसे में ज्योति की 'अपने समाज' के किसी लड़के से शादी तय कर देती हैं. लेकिन उम्मीद के मुताबिक ज्योति शादी से पहले भाग जाती है. आशू भी अपने घर को छोड़ ज्योति संग चल देता है. कोर्ट में शादी करते हैं और प्रोटेक्शन के तौर पर कुछ दिन के लिए सेफ हाउस में भेज दिए जाते हैं. ये सेफ हाउस ऐसे ही कपल के लिए बनाए गए हैं जिनकी शादी से परिवार वाले राजी नहीं हैं और उनकी जान के पीछे पड़े होते हैं. ऐसे में इन सेफ हाउस में जिंदगी की गारंटी दी जाती है.

लेकिन लड़की की दादी इस बेइज्जती को सहन नहीं कर पाती और फिर अपने एक खासम-खास आदमी को उनके पीछे लगा देती है. करना कुछ नहीं है, बस जैसे ही दिखे मौत के घाट उतार देना है. इस विलेन का नाम है डागर ( बॉबी देओल). इसका बैकग्राउंड सिर्फ इतना है कि ये खुद को एक समाजसेवी मानता है जो उन लोगों को सजा दे रहा है जो समाज के नियमों को तोड़ दूसरे धर्म वालों से शादी कर रहे हैं. तो बस पूरी फिल्म इन्हीं तीन किरदारों के बीच घूमती है. बीच-बीच में पुलिस वाले भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं, लेकिन मेन काम इन तीनों का ही है. 

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टाइटल में ही 'झोल' लग रहा है!

शंकर रमन की लव हॉस्टल देखने के बाद सबसे पहला ख्याल तो ये आता है कि फिल्म का नाम कुछ और होना चाहिए....शायद खूनी हॉस्टल...ब्लड हॉस्टल या कुछ भी ऐसा क्योंकि फिल्म में प्यार से ज्यादा फोकस तो गोलियों पर है....खून पर है. फिल्म की कहानी में जितने पहलू, किरदार हैं, उससे कही ज्यादा तो बॉबी की बंदूक से गोलियां चली हैं. उनको देख तो वेलकम फिल्म की याद आ जाती है जिसमें उदय शेट्टी पहले किसी को मारता है और फिर पूछता है कि इसने किया क्या था. खैर टाइटल से आगे बढ़ें तो ये फिल्म सिर्फ एक घंटा पचास मिनट की है. इसलिए एडिटिंग डिपार्टमेंट से कोई शिकायत नहीं है.

ये भी दिखाना है..वो भी दिखाना है, हुआ कुछ नहीं

लेकिन....लेकिन जिसने फिल्म बनाई है...जिसने कहानी लिखी है, उनसे जरूर कुछ शिकायतें हैं. पहली शिकायत तो ये कि लव हॉस्टल के अंदर एक साथ कई मुद्दे उठाए गए हैं. आपने एक तरफ ऑनर किलिंग की बात की है....दूसरी ओर मुस्लिमों के साथ हो रहे भेदभाव को दिखाया और बीच-बीच में ऐसे मामलों में पुलिस का क्या रोल रहता है, इस पर जोर दिया है. लेकिन क्या किसी एक मुद्दे के साथ भी आप जस्टिफाई कर पाए....जवाब है नहीं. ऑनर किलिंग वाला मु्द्दा तो सिर्फ फिल्म के कुछ शुरुआती हिस्सों तक ही सीमित है....बाद की पूरी कहानी तो सिर्फ डागर और उसकी बंदूक की है. इसी तरह फिल्म में बीच-बीच में विक्रांत और उसके मुस्लिम कैरेक्टर का जिक्र है, समाज में इसको लेकर क्या बात है, उस पर फोकस है. लेकिन क्या एक-काद 'So called' डायलॉग से इस पहलू को समझा जा सकता है, कभी नहीं. ऐसे में डायरेक्टर साहब से काफी कुछ दिखाने के चक्कर में काफी कुछ मिस हो गया है.

बॉबी का मेकअप अच्छा, विक्रांत का काम कैसा?

एक्टिंग की ज्यादा बात करने की जरूरत नहीं है. सभी शानदार कलाकार हैं, हर रोल में आसानी से ढल जाना इनकी फितरत है. डायरेक्टर-राइटर जैसा कैरेक्टर गढ़ेंगे, ये कलाकर वैसा ही काम कर जाएंगे. इसलिए लव हॉस्टल में क्या विक्रांत मेसी, क्या सान्या मल्होत्रा, सभी ने वहीं किया जो करने को कहा गया. हां बॉबी देओल को लेकर ये जरूर कहा जा सकता है कि मेकर्स ने उनके 'विलेन' वाले किरदार को ज्यादा ग्लोरिफाई किया है. ट्रेलर और प्रमोशन के दौरान भी उनके किरदार को लेकर ही ज्यादा बज बनाया गया था. फिल्म में भी वहीं दिखता है, डायलॉग-एक्शन सबकुछ उन्हें ही दिया गया है. मेकअप बहुत बढ़िया किया गया है, खूब इंटेंस बना दिया है, लेकिन काम सिर्फ 'ठीक' है.

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कितनी रियल कितनी फेक?

लव हॉस्टल का डायरेक्शन भी काफी कंफ्यूजिंग है. शंकर रमन ने अपनी फिल्म के तीस मिनट तो सिर्फ सभी किरदारों को सेट करने में लगा दिए हैं. याद रहे ये फिल्म मात्र 1 घंटा 50 मिनट की है. उसमें भी शुरुआत का आधा घंटा आप सिर्फ स्क्रीन पर कई सारे किस्से देखेंगे...कहीं पर कोई जोड़ा भाग रहा होगा..कहीं पर कुछ धंधा चल रहा होगा और कहीं पर डागर जी गोलिया बरसा रहे होंगे. मतलब दर्शकों को कहानी पकड़ने में समय लग जाएगा और जब तक सब क्लियर होगा, फिल्म खत्म और टीवी ऑफ. दूसरा प्वाइंट ये भी है कि इस बार शंकर रमन वास्तविकता से दूर रह गए हैं. फिल्म जरूर असल मुद्दे पर है, लेकिन उन्होंने उसका एक 'एक्ट्रीम' वर्जन दिखाया है जो हजम करना मुश्किल है.

अब इतना सबकुछ जानने के बाद भी अगर लव हॉस्टल देखने का मन करे तो कृप्या करके अपने सबटाइटल ऑन कर लीजिएगा, वरना सभी किरदारों की 'तगड़ी हरियाणवी' आपके समझ से कोसो दूर जा सकती है .


 

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