मनोज वशिष्ठ, नई दिल्ली। बदलाव की राजनीति करने के लिए राजनीति में बदलाव लाना ज़रूरी है। पॉलिटिकल एक्टिविज़्म के ज़रिए राजनीति में बदलाव की कोशिशें होती रही हैं, मगर चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दलों को अंतत: विभाजनकारी राजनीति और दंगे ही सबसे सहज और गारंटेड रास्ता नज़र आता है।
हर चुनाव के बाद जनता पिछले फ़ैसले पर पछताती है, मगर अगले चुनाव में फिर उसी राजनीति का शिकार बनती है, जो समाज और दिलों को बांटने का काम करती है। नफ़रत की राजनीति करने वाले बारम्बार इस फॉर्मूले को दोहराते हैं, क्योंकि इसमें जवाबदेही कोई नहीं और मुनाफ़े की पक्की गारंटी है।
विपक्ष इतना कमज़ोर हो चुका है कि उनके पास कायदे का एक ऐसा नेता नहीं, जो सत्ताधारी दल के सामने अपने पैरों पर खड़ा भी हो सके। ऐसे में बदलाव की बात करने वालों को बहुत कुछ सहना और खोना पड़ता है। डिज़्नी प्लस हॉटस्टार पर 30 जुलाई को रिलीज़ हुई वेब सीरीज़ माया नगरी सिटी ऑफ़ ड्रीम्स का दूसरा सीज़न असली-सी लगने वाली ऐसी ही कई राजनीतिक घटनाओं और बहसों का ब्योरा है, जिसे 40-45 मिनट के 10 एपिसोड्स में फैलाया गया है।
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राजनीतिक घटनाओं का केंद्र महाराष्ट्र की सियासत का सबसे ताक़तवर परिवार गायकवाड़ परिवार है, जिसका मुखिया अमेय राव गायकवाड़ यानी साहिब पिछले सीज़न में जानलेवा हमले से बचने के बाद सियासत में वापसी की कोशिश में जुटा है। बेटी पूर्णिमा गायकवाड़ उसे विस्थापित करके महाराष्ट्र जनशक्ति पार्टी की अध्यक्ष और मुख्यमंत्री बन चुकी है। हालांकि, इन हालात को पेश इस तरह किया गया है कि पूर्णिमा साहिब के आशीर्वाद से ही राज्य की मुख्यमंत्री बनी है।
पूर्णिमा बदलाव की राजनीति का युवा चेहरा है, जबकि अमेय धार्मिक कट्टरवाद की पारम्परिक राजनीति का विम्ब है। पूर्णिमा ने मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए अपने भाई आषीश राव गायकवाड़ को रास्ते से हटाया, जिसके ऐबों को नज़रअंदाज़ करके अमेय अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना चाहता था, क्योंकि उसके हिसाब से पुरुष और महिलाओं को भगवान ने अलग-अलग कामों के लिए बनाया है। हालांकि, पूर्णिमा का अपना अतीत भी विवादित रहा है। उसका समलैंगिक संबंध बना था। एक सीक्रेट शादी हो चुकी थी। मगर, तमाम व्यक्तिगत कमियों के बावजूद पूर्णिमा अपने पिता की गंदी राजनीति को बदलना चाहती है।
अमेय अपनी वापसी की तैयारी ख़ामोशी से कर रहा है और सही मौक़ा आते ही इसका एलान करने वाला है। अमेय शहर में दंगे करवाने की साजिश रच रहा है, जो उसकी राजनीति करने का पुराना अंदाज़ है। एनकाउंटर स्पेशलिस्ट वसीन ख़ान नौकरी छोड़कर पूर्णिमा के साथ राजनीतिक सफ़र पर चल पड़ा है। मुंबई के भायकला इलाक़े से वो एमएलए का चुनाव लड़ रहा है। पूर्व सीएम जगदीश गौरव अब पूर्णिमा के साथ है और अहम फ़ैसलों में मुख्यमंत्री की मदद करता है।
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सियासत में साहिब की वापसी और बेटी पूर्णिमा से बदला लेने की साजिशों के मुख्य कथानक के साथ लेखक-निर्देशक नागेश कुकुनूर और कई उप-कथानक भी साथ लेकर चलते हैं। मुंबई में ब्रिज का गिरना, मेट्रो प्रोजेक्ट की शुरुआत, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पुलिस ऑफ़िसर का राजनीति ज्वाइन करना, मुस्लिमों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलती राजनीति वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं। हालांकि, इनमें कुछ ऐसे हैं, जो मुख्य ट्रैक को अधिक प्रभावित नहीं करते, मगर रोचकता बनाये रखते हैं।
सबसे बड़े बिज़नेसमैन रमणीक भाई की बेटी तान्या का ट्रैक उस युवा पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती है, जो बदलाव की राजनीति चाहती है और एसी कमरों और सोशल मीडिया में ज्वलंत मुद्दों पर फ़र्ज़ी बहस करने के बजाय ख़ुद सड़क पर उतरकर समाधान का हिस्सा बनना चाहती है। भ्रष्ट तरीकों से कमाई गयी पिता की अरबों की दौलत भी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती।
सीरीज़ फ्लैशबैक के ज़रिए मुख्य पात्रों की पुरानी घटनाओं को दिखाती है, जिनका वर्तमान से भी गहरा संबंध है। पूर्णिमा और लेफ्टिस्ट विचारधारा रखने वाले महेश का प्रेम संबंध कथानक का अहम हिस्सा है। ईमानदार और निर्भीक पत्रकार शिरीन अली के ज़रिए जहां मीडिया का ज़िम्मेदार चेहरा दिखाया गया है, वहीं एक काल्पनिक टीवी चैनल के किसी को ना बोलने देने वाले एंकर के ज़रिए मीडिया के सर्कस को भी प्रस्तुत किया गया है।
हालांकि, कुछ उप-कथानकों ने सीरीज़ को ग़ैर-ज़रूरी लम्बा किया है, जिसकी वजह से शुरुआती एपिसोड्स की रफ़्तार सुस्त लगती है। छठे एपिसोड्स से सीरीज़ रफ़्तार पकड़ती है, मगर अंत के तीन एपिसोड्स दर्शक को हिलने नहीं देते। सीरीज़ का दसवां और अंतिम एपिसोड्स ज़बरदस्त है। इस एपिसोड का क्लाइमैक्स शॉकिंग है, जब सीरीज़ के सभी मुख्य किरदार अमेय, पूर्णिमा, वसीम, पूर्णिमा की पूर्व गर्रफ्रेंड लीपाक्षी, जगदीश गौरव एक दहलाने वाली घटना के बाद एक ही फ्रेम में आते हैं।
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अमेय राव गायकवाड़ यानी साहिब का कैरेक्टर स्कैच और इस किरदार को निभाने के लिए अतुल कुलकर्णी को चुनना लेखक-निर्देशक नागेश कुकुनूर की सबसे बड़ी कामयाबी है। अमेय के किरदार में अतुल ने सचमुच जान डाल दी है। शातिर, मक्कार, मौक़ापरस्त और सत्ता के लिए किसी भी हद तक जाने वाले ताक़तवर राजनेता की चारित्रिक ख़ूबियों को अतुल ने अपने अभिनय के ज़रिए इस तरह पेश किया है कि दर्शक के मन में इस किरदार की नीयत को लेकर कोई असमंजस नहीं रहता।
पूर्णिमा के किरदार में प्रिया बापट ने अतुल को बराबर की टक्कर दी है। पूर्णिमा के किरदार की जर्नी में प्रिया बापट के बदलते हुए अंदाज़ को साफ़ महसूस किया जा सकता है। वसीन ख़ान के किरदार में एजाज़ ख़ान बहुत वास्तविक लगे हैं। एक बेटी के सिंगल पैरेंट और भावी एमएलए बनने की तैयारियों के बीच वसीम का बारबार पुलिसिया तेवर बाहर आना रोमांचक लगता है।
किरदार के ट्रांसफॉर्मेशन में एजाज़ बेहद सहज लगे हैं। पहले साहिब और अब पूर्णिमा के विश्वासपात्र और शातिर राजनेता के किरदार को वेटरन एक्टर सचिन पिलगांवकर ने अच्छे से जीया है। इस किरदार के भी कई रंग हैं, जिन्हें सचिन ने कायदे से उकेरा है। कम और नपा-तुला बोलने वाले दक्षिण भारतीय गैंगस्टर जगन (अन्ना) के किरदार सुशांत सिंह ने बेहतरीन काम किया है।
हालांकि, उनके हिस्से में अधिक दृश्य नहीं आये हैं, मगर जहां भी सुशांत नज़र आये, उनकी धमक साफ़ नज़र आती है। अन्ना की क्रूरता को सुशांत की आंखों में महसूस किया जा सकता है। पूर्णिमा के वफ़ादार और सफेद पैंट-शर्ट पहनकर ब्लैक मनी का हिसाब-किताब रखने वाले सीधे-सादे पुरुषोत्तम के किरदार में संदीप कुलकर्णी का अभिनय प्रभावित करता है।
सिटी ऑफ़ ड्रीम्स का बैकग्राउंड स्कोर भी इस थ्रिलर की एक ख़ूबी है। ख़ासकर, क्रेडिट रोल्स का म्यूज़िक थ्रिलर की पृष्ठभूमि स्थापित करने में मदद करता है। संवाद असरदार हैं और कुछ लाइनें वाकई जानदार हैं। सीरीज़ में गालियां और कुछ दृश्य असहज कर सकते हैं।
मायानगरी सिटी ऑफ़ ड्रीम्स 2 काल्पनिक सीरीज़ होते हुए भी आपको वास्तविकता के क़रीब लगेगी। राजनीति के दांव-पेच आपका देखे-देखे लगेंगे। मगर, सिटी ऑफ़ ड्रीम्स की खूबी यही है कि जानी-पहचानी घटनाओं को भी आप देखना चाहते हैं, क्योंकि राजनीति में बदलाव की उम्मीद तो आप भी करते हैं, सपोर्ट भले ही किसी भी विचारधारा को करें।
कलाकार- अतुल कुलकर्णी, प्रिया बापट, सचिन पिलगांवकर, एजाज़ ख़ान, सुशांत सिंह, संदीप कुलकर्णी फ्लोरा सैनी आदि।
निर्देशक- नागेश कुकुनूर
निर्माता- एप्लॉज़ एंटरटेनमेंट
रेटिंग- *** (3 स्टार)
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