कोरोना वायरस का खौफ और उसके बाद देश में लगा लॉकडाउन शायद ही कोई भूल पाएगा. आजाद भारत ने इससे पहले इतनी बड़ी त्रासदी नहीं देखी थी. घर में कैद लोग, सड़क पर बेसुध चलते मजदूर और अस्पताल में बिना घड़ी की सुई देखे काम करते डॉक्टर. उस माहौल को याद कर ही इंसान अंदर तक झकझोर जाता है. अगर उन्हीं यादों पर कोई फिल्म बन जाए तो वो रौंगटे खड़े करने वाली साबित होगी. उसी बात को डायरेक्टर मधुर भंडारकर ने भी समझा और हमारे बीच लेकर आ गए इंडिया लॉकडाउन. फिल्म कोरोना त्रासदी के बारे में है, लॉकडाउन की कहानियों के बारे में है और लोगों के डर, दर्द को भी दिखाने का काम करती है. लेकिन आप क्या उस दर्द को महसूस कर पाए हैं? क्या आप भंडारकर की इस फिल्म के साथ खुद को जोड़ पाएंगे? हमारा रिव्यू इसी बात की समीक्षा करेगा.
कहानी
कोरोना देश में दस्तक दे चुका है. चीन में मामले ज्यादा तेजी से बढ़ रहे हैं, लेकिन भारत में भी चर्चा है कि कुछ खतरनाक होने वाला है. कुछ लोग मास्क लगाए दिख रहे हैं, कुछ चीन को दोषी मान रहे हैं और कुछ कोरोना को मजाक बना हवा में उड़ा रहे हैं. लेकिन इन तमाम बातों के बीच माधव (प्रतीक बब्बर) का परिवार रोजी-रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है. उसकी पत्नी फूलमती (सई ताम्हणकर) घरों में साफ-सफाई कर कुछ पैसे कमा रही है. एक और परिवार है नागेश्वर राव ( प्रकाश बेलावडी) का. घर में अकेले रहते हैं, पत्नी का निधन हो चुका है और बड़ी बेटी हैदराबाद में है. वो गर्भवती है और नागेश्वर जल्द से जल्द अपनी बेटी के पास जाना चाहते हैं. फिल्म में एक कहानी मेहरू (श्वेता बासु) की भी चल रही है जो जिस्मफरोशी के धंधे में लगी हुई है. उसकी जैसी कई दूसरी लड़कियां भी मुंबई के रेड लाइट एरिया में वो काम कर अपना घर चला रही हैं.
इन तमाम कहानियों के बीच में एक कहानी प्यार की भी है. देव और पलक (जरीन) एक दूसरे को बहुत चाहते हैं. नया-नया प्यार है तो साथ में काफी कुछ एक्सप्लोर करना चाहते हैं. अब सब कुछ ठीक चला रहा होता है, लेकिन अचानक से केंद्र सरकार 21 दिन के लॉकडाउन का ऐलान कर देती है. एक साथ इन सभी परिवारों की जिंदगी हमेशा के लिए बदल जाती है. माधव का परिवार जो गरीब है, कर्ज तले दबता चला जाता है. पत्नी जिस घर में काम करती है, वो उसे नौकरी से बाहर कर देते हैं. फैसला होता है कि अब अपने गांव के लिए निकलना पड़ेगा. ट्रेन-बसे सब बंद हो चुकी हैं तो पैदल ही बिहार तक का रास्ता तय करना है. नागेश्वर का परिवार भी इस लॉकडाउन में परेशान हो जाता है. नागेश्वर अपनी बेटी के पास हैदराबाद जाना चाहता है, लेकिन ट्रांसपोर्ट कोई है नहीं तो अपने घर में फंसा रह गया है. मेहरू का जिस्मफरोशी वाला धंधा भी बंद पड़ चुका है. कोई ग्राहक नहीं है, तो वो भी अलग-अलग जुगाड़ से पैसा कमाने की कोशिश में लगी है. अब इन सभी कहानियों का अंत में क्या होता है, ये क्या लॉकडाउन वाली चुनौती से पार पाते है या नहीं, मधुर भंडारकर की फिल्म इन सभी सवालों का जवाब देती है.
भावनाहीन ट्रीटमेंट, जरूरत से ज्यादा सिंपल
अब जो भी कहानियां मधुर भंडारकर अपनी फिल्मों में दिखा रहे हैं, ये सबकुछ असल में आप सभी कहीं ना कहीं देख चुके हैं. सड़क पर चलते मजदूरों ने किनकी आंखें नम नहीं कीं. अपनों से बिछड़ने का दर्द भी सभी ने लॉकडाउन के समय महसूस कर लिया था. दो प्यार करने वाले भी लॉकडाउन में कभी ना कभी अलग हुए ही. ऐसे में सवाल ये है कि जिन घटनाओं ने आपको असल जिंदगी में इतना परेशान कर दिया था, क्या भंडारकर की फिल्म भी आपको झकझोर पाई है? जवाब है नहीं, बिल्कुल भी नहीं. फिल्म में एक साथ कई कहानियां जरूर दिखाई गई हैं, सभी का अपना एक संघर्ष भी दिख रहा है, लेकिन कुछ भी दिल को नहीं लगता. सबकुछ एकदम फ्लैट सा लगता है. मानों ज्यादा साधारण दिखाने के चक्कर में कहानी के मूल मंत्र को भी भुला दिया गया. शुरुआत का 35-40 मिनट तो सिर्फ भूमिका बांधने में निकला है, यानी कि ये फिल्म आपके सब्र का भी पूरा टेस्ट लेती है.
सेकेंड हाफ में जब कहानी लॉकडाउन के पहलू को छूती है तो कुछ सीन्स जरूर आपको पुरानी यादों की ओर ले जाते हैं. लेकिन किसी भी किरदार का दर्द हम अपना नहीं बना पाते. बस इस कहानी की एक अच्छी बात है कि सबकुछ एक दूसरे से किसी ना किसी तरीके से कनेक्ट कर दिया गया है. मतलब जब फिल्म खत्म होने वाली होती है, जितनी भी कहानियां हैं, वो सभी एक दूसरे से जुड़ जाती हैं. लेकिन इसके अलावा इंडिया लॉकडाउन की कहानी आपको कुछ नया या कोरोना को देखते हुए कहें तो भावुक करने वाला कंटेंट नहीं देती.
प्रतीक बब्बर सबसे कमजोर कड़ी, दूसरे कलाकार ठीक
फिल्म की स्टारकास्ट भी औसत ही कही जाएगी. सबसे कमजोर कड़ी तो प्रतीक बब्बर लगे हैं. उनका बिहारी एसेंट पूरे समय इरिटेट ज्यादा करता है. इस किरदार में वे शुरुआत से ही असहज से लगे और उनकी वो असहजता हम तक भी पहुंच गई. उनकी पत्नी के रोल में सई ताम्हणकर का काम फिर भी ठीक है. वे काफी नेचुरल लगी हैं और अंत तक अपने किरदार को पकड़ कर चलीं. प्रकाश बेलावडी भी अपने रोल में फिट बैठे हैं. श्वेता बासु की बात करें तो उन्हें भी जितना काम दिया गया, वे ठीक तरह से कर गई हैं. लेकिन इस तरह के रोल कई दूसरे कलाकार इससे काफी बेहतर कर चुके हैं, तो कोई कमाल नहीं हुआ है. फिल्म में अहाना कुमरा और जरीन जैसी कुछ दूसरी अभिनेत्रियां भी काम कर रही हैं, उन्होंने कहानी को जरूरी सपोर्ट देने का काम किया है.
भंडारकर का निर्देशन कमजोर
मधुर भंडारकर जैसे निर्देशक जब भी कोई फिल्म बनाते हैं, एक चीज हर कोई उम्मीद करता है- वास्तविकता. उनकी कहानियों में एक अलग ही सच्चाई रहती है जो दर्शकों को साथ जोड़ने का काम करती है. लेकिन इंडिया लॉकडाउन जो इतने संवेदनशील मुद्दे पर बनाई गई फिल्म है, वो इस डिपार्टमेंट में फेल हुई है. सबसे बड़ी निराशा तो इस बात की है कि फिल्म एक बार भी अंदर तक नहीं झकझोर पाई. मतलब मजदूर 21 दिन से बिना कुछ खाए पैदल चल रहा है, ये सीन सोच ही आदमी इमोशनल हो सकता है. लेकिन भंडारकर के जरूरत से ज्यादा साधारण ट्रीटमेंट ने उस भावुकता को खत्म कर दिया. फिल्म में कई सीन ऐसे लगे जो शायद जोरदार हिट करते अगर थोड़ा इमोशनलल एलिमेंट पर ध्यान दिया होता.
तो बस इंडिया लॉकडाउन एक औसत से भी थोड़ी कम वाली फिल्म है. अगर कोरोना या लॉकडाउन पर कुछ देखना ही है तो किसी डॉक्यूमेंट्री पर थोड़ा समय दीजिए, उसमें बेहतर जानकारी भी है और वो वास्तविकता से भी ज्यादा जुड़ी होगी.
India Lockdown Review: कोरोना जैसी त्रासदी पर कमजोर पेशकश, प्रतीक बब्बर की एक्टिंग है ओवर - Aaj Tak
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