KGF बनाने वाले होम्बाले फिल्म्स की अगली फिल्म 'कांतारा' कन्नड़ में बनी है और 30 सितंबर को थिएटर्स में रिलीज होने के बाद से जमकर तारीफ बटोर रही थी. उत्तर भारत में भी लोगों ने जबसे 'कांतारा' का ट्रेलर देखा था, वो इसे बड़ी स्क्रीन पर देखना चाहते थे. फैन्स की डिमांड स्वीकार करते हुए मेकर्स ने 14 अक्टूबर, शुक्रवार को 'कांतारा' को हिंदी डबिंग के साथ भी रिलीज कर दिया है.
ओटीटी की पहुंच बढ़ने के बाद साउथ में बनी बहुत सारी फिल्मों को उत्तर भारत के सिनेमा फैन्स ने भी देखा है और हमेशा के लिए इन फिल्मों के फैन हो गए हैं. 'कांतारा' उन फिल्मों में से है जो अगर आपने अभी थिएटर्स में नहीं देखी और बाद में ओटीटी पर देखी, तो ये अफसोस रहेगा कि थिएटर्स में इसे देखने का एक्सपीरियंस क्यों मिस कर गए!
मैंने 'कांतारा' नोएडा के थिएटर में देखी, जहां मेरे अलावा लगभग 15 लोग और थे. इनमें से अधिकतर 2-3 के ग्रुप में थे. फर्स्ट हाफ खत्म होने के बाद थिएटर में लोग फिल्म के बारे में आपस में बातें कर रहे थे, हंस-बोल रहे थे. लेकिन सेकंड हाफ में अंत के लगभग 40 मिनट पूरे थिएटर में जैसे सन्नाटा था. और फिल्म खत्म होने के बाद सब जैसे सन्न रह गए थे और एक दूसरे के चेहरे इस भाव में देख रहे थे कि 'स्क्रीन पर ये क्या देख लिया!'
'कांतारा' की कहानी की जड़ में एक लोककथा है और पूरी फिल्म के नैरेटिव में एक वैसा ही सम्मोहन है जैसा लोककथाओं को सुनने में महसूस होता है. ऋषभ शेट्टी बतौर डायरेक्टर एक ऐसा संसार रचते हैं जिसे आप बहुत क्युरियोसिटी के साथ देखते रहते हैं. और वो इस फ्लो के साथ कहानी कहते हैं कि कोई भी मोमेंट खाली नहीं लगता और 'कांतारा' के संसार को देखते रहने की इच्छा बनी रहती है. बतौर एक्टर ऋषभ के कम के लिए सबसे सटीक एक ही शब्द लगता है- अद्भुत!
'कांतारा' का मिथक
फिल्म में जंगल के बीच बस एक छोटे से गांव की कहानी है. 'कांतारा' का अर्थ होता है बीहड़ जंगल, और इस जंगल के निवासियों में सम्पन्नता लाने वाले एक देवता के मिथक की मान्यता है. इस देवता का सालाना अनुष्ठान 'भूत कोला' कहानी का एक कोर एलिमेंट है.
कहा जाता है कि शांति की तलाश में भटकते एक राजा को, जंगल में पत्थर के रूप में ये देवता मिला और उसने एक शर्त रखी. शर्त ये कि जमीन का ये हिस्सा गांव वालों का रहेगा और राजा को शांति मिलेगी. इस शर्त के नियम को तोड़ने पर भारी विनाश होगा.
कहानी
फिल्म का लीडिंग किरदार है शिवा, जिसका परिवार पीढ़ियों से जंगल के देवता की पूजा-अनुष्ठान करता आया है. लेकिन शिवा एक पूरी तरह मनमौजी और पैशनेट लड़का है जो अपनी मौज मस्ती में रहता है. 'कांतारा' के पहले 30 मिनट में ही 'कंबाला' (भैंसे की दौड़) का एक सीक्वेंस है, जिससे आपको बता दिया जाता है कि शिवा जितना मौजी और बहादुर है, उतना ही रिएक्टिव भी यानी बहुत जल्दी भड़कता है. 'कांतारा' के फर्स्ट हाफ में शिवा, उसके साथी, जंगल से गांववालों का रिश्ता ये सबकुछ आप समझ जाएंगे.
कहानी में एक फॉरेस्ट ऑफिसर है मुरली (किशोर), जो सरकार की तरफ से जंगल का रखवाला है और उसके हिसाब से जंगल में गांववालों का दखल प्रकृति को नुक्सान पहुंचाने वाला है. ऐसे में जंगल को अपना प्लेग्राउंड मानने वाले शिवा से भी उसकी ठन जाती है. जंगल का जो मिथक कहानी की जड़ में है, उस कहानी के राजा का मौजूद वंशज देवेन्द्र सुत्तर (अच्युत कुमार) भी पूरे खेल में एक महत्वपूर्ण किरदार है. सवाल ये है कि गांववालों का आगे क्या होगा? क्या उनकी जमीनें सरकार के हाथ में जाएंगी? इस दौर में जब जमीनों के चक्कर में लोग गला काटने को तैयार हैं, तब क्या राजा का वंशज अपने पूर्वजों की मानी हुई देवता की शर्त निभाएगा? और इस पूरे खेल में शिवा और उसके पूर्वजों का जंगल के देवता से कनेक्शन किस तरह असर रखता है?
इन सवालों का जवाब 'कांतारा' जिस तरह स्क्रीन पर देती है, उसे पूरा देखने के बाद आपको थिएटर की सीट से उठने में कुछ मिनट का समय लगेगा. मुझे खुद थिएटर से बाहर आने के बाद भी, फिल्म से बाहर आने में थोड़ा वक्त लगा.
क्या है खास?
'कांतारा' की कहानी हमारे देश में बहुत सारे ऐसे समुदायों और समाजों की तरह है जो जंगल से सीधे जुड़े हैं. शिव और उसके गांव वालों की तरह देश के बहुत सारे इलाकों के लोग इस तरह के संघर्ष के बीच फंसे रहते हैं. जंगल और इन्सान के रिश्ते पर वैसे भी सिनेमा में बहुत कम फिल्में हैं और 'कांतारा' इस लिस्ट में बहुत ऊपर रखी जा सकती है.
टेक्निकली, 'कांतारा' एक बहुत दमदार फिल्म है. अरविन्द शेट्टी की सिनेमेटोग्राफी बहुत दमदार है. फिल्म में 'कंबाला' के खेल से लेकर भूत कोला और जंगल की पूरी सीनरी को कैमरा जिस तरह कैप्चर करता है उसमें नयापन तो लगता ही है, साथ ही थिएटर में मौजूद दर्शक खुद को स्क्रीन पर चिपका नहीं बल्कि कहानी में शामिल महसूस करता है. जैसे सबकुछ आंखों के सामने ही घट रहा हो.
स्पेशल इफेक्ट्स भी बहुत अच्छे हैं और कलर टोन आंखों को बहुत सुकून देने वाला है. 'कांतारा' के साउंड में दक्षिण कन्नड़ फोक का नेटिव फील तो है ही, साथ में एक रहस्यमयी एलिमेंट है जो जंगल के मिथक से जुड़ी कहानी को एक माया टाइप फील देने में बहुत खूब काम करता है. फिल्म की एक्शन कोरियोग्राफी भी बहुत कमाल की है.
डायरेक्शन और परफॉरमेंस
ऋषभ शेट्टी का स्क्रीनप्ले और डायरेक्शन एक एनर्जी से भरा हुआ है. उनके नैरेटिव में एक फ्लो है जहां स्क्रीन पर कोई ढीला मोमेंट नहीं है और कहानी से कट जाने जैसा नहीं लगता. ढाई घंटे लम्बी फिल्म को उन्होंने पूरा टाइट रखा है और स्क्रीनप्ले की स्पीड नहीं हल्की पड़ती. उनके डायरेक्शन का दम तो स्क्रीन पर आपको दिखता ही है, लेकिन बतौर एक्टर उन्होंने जो किया है, वो जादुई से कम नहीं है.
शिवा के कैरेक्टर में उनकी रॉ एनर्जी पूरी फिल्म में बराबर फैली हुई है और स्क्रीन पर उनका पूरा ऑरा बहुत कमाल का है. फिल्म के आखिरी 40 मिनट रिषभ को देखकर आप समझ पाएंगे कि उनकी परफॉरमेंस में ऐसा क्या जादू है. अगर वो स्पॉइलर न होता, तो यहां जरूर बात करते.
फॉरेस्ट ऑफिसर बने किशोर बहुत, राजा के वंशज के रोल में अच्युत और शिवा की लव इंटरेस्ट लीला के रोल में सप्तमी गौड़ा ने भी बेहतरीन काम किया है.
कमियां
'कांतारा' दक्षिण कन्नड़ और तुलूनाडू इलाके की लोक कथाओं और लोक संस्कृति से बहुत गहरी जुड़ी हुई है. फिल्म मूलतः कन्नड़ में बनी है और हिंदी में डबिंग में देखने पर कहीं न कहीं कहानी के कल्चर और प्रतीओं को समझने में थोड़ी सी उलझन हो सकती है. मुझे इसलिए नहीं हुई क्योंकि मैंने 'कांतारा' की कहानी में घुले प्रतीकों, मिथकों और तुलूनाडू की संस्कृति के बारे में थोड़ा पढ़ा था. 'कांतारा' देखने से पहले अगर आपको कहानी के बैकग्राउंड को समझना हो तो यहां पढ़ें:
जो डायलॉग एक पर्टिकुलर भाषा और संस्कृति से जुड़े हों उन्हें हिंदी में बदलने में थोड़ा बहुत असर तो खोता ही है. लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि इससे कहानी कहीं कमजोर हो जाती हो. 'कांतारा' आपसे बस थोड़ा सा धैर्य और एकाग्रता चाहती है. इसके बदले में आपको जो सिनेमेटिक एक्सपीरियंस मिलेगा, वो शानदार और यादगार होगा.
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